लफ़्ज़… मरजान मैं नहीं जानता ये शहर ख़ुद को क्यों मेरे अंदर के गलियारों में गुम कर देना चाहता है मैं! अगर मुझसे परिंदा चूगा माँगे मैं उसे दो लफ़्ज़ दूँगा। ये शहर क्यों अपने चराग़ों को आवाज़ की गठरी में बाँध कर मेरे सरहाने रख देता है तुम जानते हो! मेरी ख़्वाबगाह में आवाज़ों…
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