This particular Ghazal starts with the description of a beautiful beloved and in the last two Sher, there is mention of ongoing struggle for freedom; that is what I found very interesting. This Ghazal is beautifully written.
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रौशन जमाल-ए-यार से है अंजुमन तमाम जमाल-ए-यार = beauty of the beloved
दहका हुआ है आतिश-ए-गुल से चमन तमाम आतिश-ए-गुल = flame of flower
हैरत ग़ुरूर-ए-हुस्न से शोख़ी से इज़्तिराब इज़्तिराब = restlessness
दिल ने भी तेरे सीख लिए हैं चलन तमाम
अल्लाह-री जिस्म-ए-यार की ख़ूबी कि ख़ुद-ब-ख़ुद
रंगीनियों में डूब गया पैरहन तमाम पैरहन = dress, apparel
दिल ख़ून हो चुका है जिगर हो चुका है ख़ाक
बाक़ी हूँ मैं मुझे भी कर ऐ तेग़-ज़न तमाम तेग़-ज़न = swordsman
देखो तो चश्म-ए-यार की जादू-निगाहियाँ
बेहोश इक नज़र में हुई अंजुमन तमाम अंजुमन= Party,सभा,महफ़िल
है नाज़-ए-हुस्न से जो फ़रोज़ाँ जबीन-ए-यार फ़रोज़ाँ = luminous, resplendent
लबरेज़ आब-ए-नूर है चाह-ए-ज़क़न तमाम जबीन-ए-यार = forehead of the beloved
नश-ओ-नुमा-ए-सब्ज़ा-ओ-गुल से बहार में
शादाबियों ने घेर लिया है चमन तमाम
उस नाज़नीं ने जब से किया है वहाँ क़याम
गुलज़ार बन गई है ज़मीन-ए-दकन तमाम
अच्छा है अहल-ए-जौर किए जाएँ सख़्तियाँ
फैलेगी यूँ ही शोरिश-ए-हुब्ब-ए-वतन तमाम
समझे हैं अहल-ए-शर्क़ को शायद क़रीब-ए-मर्ग
मग़रिब के यूँ हैं जमा ये ज़ाग़ ओ ज़ग़न तमाम
शीरीनी-ए-नसीम है सोज़-ओ-गदाज़-ए-‘मीर’
‘हसरत’ तिरे सुख़न पे है लुत्फ़-ए-सुख़न तमाम
हसरत मोहानी
(1875-1951) दिल्ली
स्वतंत्रता सेनानी और संविधान सभा के सदस्य। ‘ इंक़िलाब ज़िन्दाबाद ‘ का नारा दिया। कृष्ण भक्त , अपनी ग़ज़ल ‘ चुपके चुपके, रात दिन आँसू बहाना याद है ‘ के लिए प्रसिद्ध
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लबरेज़ = brimful, over-flowing, चाह-ए-ज़क़न = dimple of the chin, आब-ए-नूर = liquid light
नश-ओ-नुमा-ए-सब्ज़ा-ओ-गुल = growth of greenery and flowers
शादाबियों = happiness, क़याम = stay, अहल-ए-जौर = tyrants
शोरिश-ए-हुब्ब-ए-वतन = clamour of patriotism for country
अहल-ए-शर्क़ = People, person of East, क़रीब-ए-मर्ग = near death, मग़रिब = the west
ज़ाग़ = crow, ज़ग़न = kite, शीरीनी-ए-नसीम = sweetness of breeze
सोज़-ओ-गदाज़-ए-‘मीर’ = passion and subtlety of Mir-pen name, लुत्फ़-ए-सुख़न = pleasure of conversation/poetry
(meanings & source: rekhta.org)