धूप की चादर मिरे सूरज से कहना भेज दे
गुर्बतों का दौर है जाड़ों की शिददत है बहुत
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उन अँधेरों में जहाँ सहमी हुई थी ये ज़मीं
रात से तनहा लड़ा, जुगनू में हिम्मत है बहुत
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तारों भरी पलकों की बरसायी हुई ग़ज़लें
है कौन पिरोये जो बिखरायी हुई ग़ज़लें
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पास से देखो जुगनू आँसू, दूर से देखो तारा आँसू
मैं फूलों की सेज पे बैठा आधी रात का तनहा आँसू
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मेरी इन आँखों ने अक्सर ग़म के दोनों पहलू देखे
ठहर गया तो पत्थर आँसू, बह निकला तो दरिया आँसू
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उदासी पतझड़ों की शाम ओढ़े रास्ता तकती
पहाड़ी पर हज़ारों साल की कोई इमारत-सी
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मुझे लगता है दिल खिंचकर चला आता है हाथों पर
तुझे लिक्खूँ तो मेरी उँगलियाँ एसी धड़कती हैं
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लौ की तरह चिराग़ का क़ैदी नहीं हूँ मैं
अच्छा हुआ कि अपना मकाँ कोई भी न था
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दिल पर जमी थीं गर्द-ए-सफ़र की कई तहें
काग़ज़ पे उँगलियों का निशाँ कोई भी न था
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मैं चुप रहा तो और ग़लतफ़हमियाँ बढ़ीं
वो भी सुना है उसने जो मैंने कहा नहीं
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चेहरे पे आँसुओं ने लिखी हैं कहानियाँ
आईना  देखने का मुझे हौसला नहीं
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फ़न अगर रुह-ओ-दिल की रियाज़त न हो
ऐसी मस्जिद है जिसमें इबादत न हो
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लहू का समन्दर है पलकों के पिछे
ये रोशन जज़ीरे लरज़ते रहेंगे
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अज़ल से अबद तक सफ़र ही सफ़र है
मुसाफ़िर हैं सबलोग चलते रहेंगे
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नींद तरसेगी मेरी आँखों को
जब भी ख़्वाबों से दोस्ती होगी
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ख़्वाब आईने हैं, आँखों में लिए फिरते हो
धूप में चमकेंगे टूटेंगे तो चुभ जायेंगे
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तारों की आँखों में किरनों के नेज़े
सूरज के सीने में चुभी हुई शाम
……

तिरे इख़्तियार में क्या नहीं
मुझे इस तरह से नवाज़ दे
यूँ दुआएँ मेरी क़बूल हों
मिरे लब पे कोई दुआ न हो

रियाज़त= तपस्या,जज़ीरे=द्वीप समूह, अज़ल = अनादि काल, अबद = अनंत काल

बशीर बद्र
(रोशनी के घरौंदे – बशीर बद्र की ग़ज़लें)
सम्पादक सुरेश कुमार
लिप्यंतरण सुनिज कुमार शर्मा

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