ज़िन्दगी की सच्चाइयों को खूबसूरती से पेश करनेवाले निदा फ़ाज़ली मेरी नज़र में उजालों के , उम्मीदों के शायर है और हमारे दिलो में हमेशा ज़िन्दा रहेंगे
धूप में निकलो
घटाओं में नहाकर देखो
ज़िन्दगी क्या है
किताबों को हटाकर देखो
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कभी किसी को
मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीं
तो कहीं आसमाँ नहीं मिलता
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माटी से माटी मिले, खोके सभी निशान
किसमें कितना कौन है, कैसे हो पहचान।
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घर से मस्जिद है बहुत दूर
चलो यूँ कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को
हँसाया जाए।
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बहुत मुश्किल है बनजारा मिज़ाजी
सलीक़ा चाहिए आवारगी में।
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जब किसी से कोई ग़िला रखना
सामने अपने आईना रखना।
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घर की तामीर चाहे जैसी हो
इसमें रोने की कुछ जगह रखना। तामीर – निर्माण
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मस्जिदें हैं नमाज़ियों के लिए
अपने दिल में कहीं खुदा रखना।
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मैं वो मक़तूल जो क़ातिल न बना
हाथ मेरा भी उठा था पहले। मक़तूल – क़त्ल किया हुअा
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फ़रिश्ते निकले हैं रौशनी के
हरेक रस्ता चमक रहा है
ये वक़्त वो है
ज़मीं का हर ज़र्रा
माँ के दिल-सा धड़क रहा है
पुरानी इक छत पे वक़्त बैठा
कबूतरों को उड़ा रहा है
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं
बच्चे स्कूल जा रहे हैं…..!
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अच्छी नहीं है शहर के
रास्तों की दोस्ती
आँगन में फैल जाए न
बाज़ार देखना…..!
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जो देखती हैं निगाहें
वही नहीं सब कुछ
ये एहतियात भी अपने
बयान में रखना।
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निदा फ़ाज़ली [ 1938- 2016]
ग़ज़लें, नज़्में, शे’र और जीवनी
संपादक- कन्हैयालाल नंदन