मेरा शहर ख़ाक से उठ रहा है
उसकी हांफती हुई सांसों से
ख़ाक उड रही है
पूरा आसमान ढक लिया है
न अंधेरा न उजाला
विनाश और सर्जन के
बीच का घमासान
सूरज कहीं जाकर छीप गया है
जैसे बदलती सदी के साथ
करवट ले रहा है
अपनी पीछली पीढीयों की
रूढ़ियां, विचार, सोच, रहन-सहन
को ख़ाक में गिराता हुआ
आसमां को छूने वाले खंभो
का सहारा लेकर
उठ खड़ा हो रहा है
अनगिनत सड़कों, मेट्रो, फ्लाय ओवर
से फ़ैला रहा है अपनी बाहें
छोटी-छोटी जुग्गी झोंपड़ियों
के टमटमाते दिये
देख रहे हैं
इस विशालकाय राक्षस को
जो उनके आकाश को, सूरज-चांद को
ढकते हुए
सोच रही हूं
क्या सचमुच
ये शहर
उठ रहा है
फीनिक्स की तरह
या फिर…
~ नेहल