हिंदी कविता : यशस्वी पाठक

अप्रसिद्धि बचाती है
प्रतिस्पर्धा की प्रताड़ना से
सुंदर, श्रेयस्कर बने रहने की बोझिल लालसा से
क़ाबिलियत की करोनी को,
देसी घी साबित करने से
वह बचा लेती है आलिमो-फ़ाज़िल के नीले अँगूठों की अभिलाषा से
गुटों में सुरक्षित बैठ
प्रतिक्रियाओं को मतों की तरह गिनने से बचाती है अप्रसिद्धि
बचाती है वह शर्मिंदा न होने भर जितनी ईमानदारी
प्रशंसाओं के प्लावन में
आत्म-चेतन की कसौटी का,
चूल्हा जोड़ने भर बख़्शती है ईंधन
‘अहं’ की नाक पर,
अप्रसिद्धि आ बैठती है
मक्खी की तरह,
महानता को मामूली बनाती हुई
वह रखती है—
किसी दिन अप्रसिद्ध हो जाने
या कर दिए जाने के भय से मुक्त
कीर्ति-व्यवसायियों के चढ़ते शेयर मार्केट में
संबंधों के निर्मम यांत्रिकीकरण
और अभिनय के दैनिक रिहर्सल से बचकर
अप्रसिद्ध रहने का पुरज़ोर प्रयास करता
अंतर्मुखी मन
मानुष प्रवृत्ति से विवश हो किस ओर जाए?
न जाए बीच लोगों के तो
जहाँ
पंजे झाड़कर बैठी है प्रसिद्धि।
~यशस्वी पाठक
source: sadaneera.com