कुंठा मेरी कुंठारेशम के कीड़ों-सीताने-बाने बुनती,तड़प तड़पकरबाहर आने को सिर धुनती,स्वर सेशब्दों सेभावों सेऔ’ वीणा से कहती-सुनती,गर्भवती हैमेरी कुंठा–कुँवारी कुंती! बाहर आने दूँतो लोक-लाज मर्यादाभीतर रहने दूँतो घुटन, सहन से ज़्यादा,मेरा यह व्यक्तित्वसिमटने पर आमादा। ~ दुष्यन्त कुमार
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