अधूरी कविता : मंगलेश डबराल

अधूरी कविता
जो कविताएँ लिख ली गई
उन्हें लिखना आसान था
अधूरी कविताओं को पूरा करना था कठिन
वे एक आग में जल रही थीं जंगलों की तरह
वे निगल लेती थीं सब कुछ
उनकी चिनगारियों से डर लगता था

वे ग़ुस्सैल थीं टेढ़ी-तिरछी
उन्हें रास्ते पर लाना कठिन था
सर्द रात में पुलों के नीचे वे कोहरे की तरह इकट्ठा होती थीं
पुलों से गुज़र जाते थे लोग अपने तामझाम के साथ

वे जिन काग़ज़ों पर लिखी जाती थीं
उन्हें फाड़ देती थीं गला देती थीं
वे फैलती-बिखरती जाती थीं
कविगण फिर भी ढोते रहते थे उनकी धूल
वे माँगती रहती थीं
ज़्यादा प्रेम ज़्यादा कोमलता ज़्यादा जोखिम

उनके भीतर था बहुत-सा कबाड़ कई घरेलू रहस्य
एक आतशी शीशा
जो इकट्ठा करता था सूरज की रोशनी को
उनमें एक साथ जन्म और मृत्यु का वर्णन था
वे छिपाये रहती थीं अपना शोक
लाचारी को भी इस तरह बतलाती थीं
जैसे वही हो अकेली सामर्थ्य

वे विरोध करती थीं
दूर जाने लगती थीं वहीं से पुकारती थीं
दूर से फेंकती थीं अपनी चमक अपनी परछाईं
वे बार-बार ठुकराती थीं उपलब्ध जीवन को।
~ मंगलेश डबराल (१९९९)
 
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