गलियाँ भाग-भाग कर थक गईं
और अपने पाँव के छाले मेरी आँखों में रख दिए
मेरा अपना ख़्वाब हथेली में है
रात की सीढ़ियाँ शिकस्ता हो गईं
और चराग़ का दरवाज़ा बंद है
मेरे ख़्वाब,
नौ-ज़ाइदा भूके परिंदों की तरह शोर कर रहे हैं
मैं हैरान हूँ
ज़माना अपनी हाजतें कहाँ सुलाता है
हवा शाम के वक़्त बस खिड़की से
अपना रोज़ीना वसूल करती है
बादल अपने भीगे दामन कहाँ निचोड़ते हैं
मुझे गलियों के आब्ले
और हथेली में धरा ख़्वाब
तेरे साथ बाँटने हैं
रात और चराग़ के दरमियान
कोई तराज़ू धरा हुआ है
एक पलड़े में आब्ले
और एक पलड़े में ख़्वाब
आ इन्हें बाँटें
क्योंकि
रात और चराग़ के दरमियान
जो कुछ भी मौजूद है… मेरा है।
~ मुनीर मोमिन
~ बलोची से उर्दू में इनका तर्जुमा अहसान असग़र ने किया है
उर्दू से लिप्यंतरण : मुमताज़ इक़बाल
मुनीर मोमिन सुपरिचित, सम्मानित और समकालीन बलोची कवि हैं। उनकी यहाँ प्रस्तुत बलोची नज़्में उनके मज्मुए ‘गुमशुदा समुंदर की आवाज़’ से चुनी गई हैं।
source : sadaneera.com, visit for more poems by Munir Momin
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Nehal
I usually write in my mother tongue Gujarati and sometimes in Hindi and English.
Nehal’s world is at the crossroads of my inner and outer worlds, hope you like the journey…
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