लफ़्ज़… मरजान
मैं नहीं जानता
ये शहर ख़ुद को क्यों
मेरे अंदर के गलियारों में गुम कर देना चाहता है
मैं!
अगर मुझसे परिंदा चूगा माँगे
मैं उसे दो लफ़्ज़ दूँगा।
ये शहर क्यों अपने चराग़ों को आवाज़ की गठरी में बाँध कर
मेरे सरहाने रख देता है
तुम जानते हो!
मेरी ख़्वाबगाह में आवाज़ों का एक बाज़ार बन चुका है
और मैं इस बाज़ार में
किसी मुसाफ़िर की तरह सिर पटकता
कुछ लफ़्ज़ तलाश कर रहा हूँ
कुछ लफ़्ज़…
ऐसे लफ़्ज़ जो मरजान की तरह ख़ूबसूरत हों।
…
अब, जबकि तुम्हारी जुदाई ने
परिंदे मुझसे रंजीदा कर दिए हैं
मैं ये मरजान
अपनी तन्हाई को पहनाना चाहता हूँ।
~ मुनीर मोमिन
~ बलोची से उर्दू में इनका तर्जुमा अहसान असग़र ने किया है
उर्दू से लिप्यंतरण : मुमताज़ इक़बाल
मुनीर मोमिन सुपरिचित, सम्मानित और समकालीन बलोची कवि हैं। उनकी यहाँ प्रस्तुत बलोची नज़्में उनके मज्मुए ‘गुमशुदा समुंदर की आवाज़’ से चुनी गई हैं।
source : sadaneera.com, visit for more poems by Munir Momin
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Nehal
I usually write in my mother tongue Gujarati and sometimes in Hindi and English.
Nehal’s world is at the crossroads of my inner and outer worlds, hope you like the journey…
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