हर्फ़ नाकाम जहाँ होते हैं उन लम्हों में फूल खिलते हैं बहुत बात के सन्नाटे में .. लब पर उगाऊँ उस के धनक फूल क़हक़हे आँखों में उस की फैला समुंदर समेट लूँ .. हर रास्ता कहीं न कहीं मुड़ ही जाएगा रिश्तों के बीच थोड़ा बहुत फ़ासला भी रख .. कुर्सी मेज़ किताबें? बिस्तर अनजाने से तकते हैं देर से अपने घर जाएँ तो सब कुछ यूँही लगता है .. टूटी कश्ती दूर किनारा ज़ेहन में कुछ गुज़रे क़िस्से हम जब बीच भँवर जाएँ तो सब कुछ यूँही लगता है .. नए रस्ते मुबारक उस को लेकिन कुछ क़दम बढ़ कर बिछड़ने का मुझे दे हौसला वापस पलट आए .. कौन से दिन हैं बच्चों के बिन रस्ते सूने सूने हैं कोई ज़ुल्फ़ नहीं लहराती गलियों पर सन्नाटा है .. वो आँख जो सहरा की तरह है यक-ओ-तन्हा इस राह में रख दो कोई बरसात किसी दिन .. बे-ख़ौफ़ हवाओं का अभी ज़ोर है क़ाएम मौसम की तरह बदलेंगे हालात किसी दिन .. ज़मीं पर जो भी मुमकिन था वो सब कुछ कर लिया यारब है हम से दूर तेरा आसमाँ महफ़ूज़ रक्खा है .. हक़ीक़ी चेहरा कहीं पर हमें नहीं मिलता सभी ने चेहरे पे डाले हैं मस्लहत के नक़ाब ~ मरग़ूब अली (1952) source: rekhta.org
