हर्फ़ नाकाम जहाँ होते हैं उन लम्हों में
फूल खिलते हैं बहुत बात के सन्नाटे में
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लब पर उगाऊँ उस के धनक फूल क़हक़हे
आँखों में उस की फैला समुंदर समेट लूँ
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हर रास्ता कहीं न कहीं मुड़ ही जाएगा
रिश्तों के बीच थोड़ा बहुत फ़ासला भी रख
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कुर्सी मेज़ किताबें? बिस्तर अनजाने से तकते हैं
देर से अपने घर जाएँ तो सब कुछ यूँही लगता है
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टूटी कश्ती दूर किनारा ज़ेहन में कुछ गुज़रे क़िस्से
हम जब बीच भँवर जाएँ तो सब कुछ यूँही लगता है
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नए रस्ते मुबारक उस को लेकिन कुछ क़दम बढ़ कर
बिछड़ने का मुझे दे हौसला वापस पलट आए
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कौन से दिन हैं बच्चों के बिन रस्ते सूने सूने हैं
कोई ज़ुल्फ़ नहीं लहराती गलियों पर सन्नाटा है
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वो आँख जो सहरा की तरह है यक-ओ-तन्हा
इस राह में रख दो कोई बरसात किसी दिन
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बे-ख़ौफ़ हवाओं का अभी ज़ोर है क़ाएम
मौसम की तरह बदलेंगे हालात किसी दिन
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ज़मीं पर जो भी मुमकिन था वो सब कुछ कर लिया यारब
है हम से दूर तेरा आसमाँ महफ़ूज़ रक्खा है
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हक़ीक़ी चेहरा कहीं पर हमें नहीं मिलता
सभी ने चेहरे पे डाले हैं मस्लहत के नक़ाब
~ मरग़ूब अली (1952)
source: rekhta.org
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Nehal
I usually write in my mother tongue Gujarati and sometimes in Hindi and English.
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