जिसे लिखता है सूरज
वो आयी!
और उसने मुस्कुरा के
मेरी बढ़ती उम्र के
सारे पुराने
जाने अनजाने बरस
पहले हवाओं में उड़ाये
और फिर मेरी ज़बाँ के
सारे लफ़्जों को
ग़ज़ल को
गीत को
दोहों को
नज़्मों को
खुली खिड़की से बाहर फेंक कर
यूँ खिलखिलाई
क़लम ने
मेज़ पर लेटे ही लेटे आँख मिचकाई
म्याऊँ करके कूदी
बन्द शीशी में पड़ी सियाही
उठा के हाथ दोनों
चाय के कप ने ली अँगड़ाई
छलाँगें मार के
हँसने लगी बरसों की तनहाई
अचानक मेरे होठों पर
इशारों और बेमअनी सदाओं की
वही भाषा उभर आयी
जिसे लिखता है सूरज
जिसे पढ़ता है दरिया
जिसे सुनता है सब्ज़ा
जिसे सदियों बादल बोलता है
और हर धरती समझती है
~ निदा फ़ाज़ली ( 1938-2016 )
( ‘ दुनिया जिसे कहते हैं ‘ )
રસમ અહીંની જુદી, નિયમ સાવ નોખા
અમારે તો શબ્દો જ કંકુ ને ચોખા
મનોજ ખંડેરિયા
LikeLiked by 1 person