मैं जितनी भी ज़बानें बोल सकता हूँ
वो सारी आज़माई हैं…
‘ख़ुदा’ ने एक भी समझी नहीं अब तक,
न वो गर्दन हिलाता है, न वो हंकारा ही देता है!
कुछ ऐसा सोच कर—
शायद फ़रिश्तों ही से पढ़वा ले,
कभी मैं चाँद की तख़्ती पे लिख देता हूँ, कोई शेर ‘ग़ालिब’ का
तो धो देता है या उसको कुतर के फाँक जाता है पढ़ा-लिखा अगर होता ख़ुदा अपना…
न होती गुफ़्तगू, तो कम से कम, चिट्ठी का आना-जाना तो रहता!
– गुलज़ार ( पाजी नज़्में )
वाह गुलज़ार साहब की बात ही निराली है👏
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जी, बिलकुल सही कहा । उनका अंदाज़े बयाँ कुछ और ही है ।
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🌿सराहनीय पोस्ट🌿
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