बहते हुए काल की गर्तामें
अश्मीभूत हो रहे हम!
कुछ सदिओं की धरोहर परंपराओं से
आज को मूल्यांकित करने में मशरुफ़
सदिओं के अंघेरे कर रहे हैं अट्टहास्य
हमारे महान, श्रेष्ठ होने के दावों पर।
इस अकळ, गहन ब्रह्मांड के एक बिंदु मात्र
जिसको सूर्य बनाने की जिदमें
अहोनिश जलते-बुझते हम।
बहेती, लुप्त हो रही नदियाँ
प्रगट, नामशेष हो रहे नगाधिराज
तूटते-जुडते भूमिखंडोसे
कुछ नहीं सीखा हमने।
किसकी ज़मीं? कौन बसा? कब तक?
दुर्ग, महेलों के धूलभरे
सिंहासनो से कुछ समझे नहीं है हम।
शत्रु कौन? मित्र कौन? कब तक?
मिटती-बनती सरहदें, बनते-बिगडते नक्शों से
कुछ नहीं जाना हमने।
अपने वरदानों को सर्वनाश, स्वनाश के
उपकरणोमें बदल रहे भस्मासूर हम
कब रुकेंगे? कहाँ जाके रुकेंगे? रुकेंगे कभी?
– नेहल
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