ब्लोग जगत के मेरे मित्रों,
पाँचवी सालगिरह का ज़श्न मनाते हुए आज मेरी आप लोगों के द्वारा सबसे ज़्यादा पढी गई हिन्दी कविताएँ पेश कर रही हूँ। यह बताते हुए मुझे बहुत खुशी हो रही है कि हिन्दीमें लिखना ये ब्लोग के साथ ही शुरु हुआ है, उस माइनेमें आप मेरे हिन्दी लेखिनी की सर्जनात्मक यात्रा के साक्षी हो। आप सब का बहुत बहुत शुक्रिया।
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ख़्वाब (Posted on May 26, 2018)
जब पलकों से कोई ख़्वाब
गिरता है
तो नींद भी मचल जाती है
उसके पीछे
दौड़ जाती है
आँखों को खूला छोड कर।
ख़्वाबों का पीछा करना
कहाँ आसान है
न जागते न सोते
फिर भी
न जाने क्यूँ
ख़्वाबो से नींद का
सौदा करने की आदत सी
हो गई है।
ख़्वाब;
क्या है….
अरमानों के रंग से
दिल के केनवास पर खिंची
एक तसवीर।
लहु की गर्मी से
मन के आसमान में उठते बादल।
रूह की प्यास के लिए
बहता झरना।
ज़िन्दगी की भागदौड में
छूटे लम्हों की लडी।
अनकहे शब्दों से
लिखी गई
एक कविता।
अनदेखी मंझिलों का
नकशा।
माझी से आये हुए
अनसूने पैगाम।
किसी के लिए
जीने की वजह
तो मरने का बहाना
किसी के लिए।
मन की रातों का
सूरज!
मन की ऋतुओं की
बारीश!
ज़िन्दगी के हाथों
तूटता-जूडता
एक शिल्प!
नेहल
Poetry, my poems © Copyright 2018, Nehal
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सफ़र (Posted on December 29, 2017)
हरे दरख़्तो के
चम्पई अंधेरोमें
शाम के साये
जब उतरते है
रात की कहानी
छेड देते है
जुग्नूओं की महफ़िलमें।
रात की रानी
खुश्बू की सौगात से
भर देती है यादों के मंज़र।
तन्हाई कब तन्हा रह पाती है!?
चाँद, सितारे, सपने
मेरे साथी
उगते, डूबते
मेरे संग
आकाश हो या हो मन का आँगन
सफ़र तो ये रोज़ करते है
शायद इन्हें भी
तलाश है
इक सुकून की
मेरी तरह!
नेहल
Poetry , my poems © Copyright 2017, Nehal
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सूर्य ग्रहन (Posted on September 16, 2017)
मेरे भीतर से उठ रहा है
ख़लाओं का काला चाँद
ढक रहा है मेरे सूरज को
धीरे धीरे
रंगों भरा जीवन
बदल रहा है
सेपिया तसवीर
और फिर
धीरे धीरे
ब्लेक एंड व्हाइट
सोचती हूँ
बन जाऊं
एक स्फ़टिक का प्रिज़्म
कहीं से ढूँढ लाउँ
एक उजली सफेद किरण
जो रंगों से भर दे
मेरे चाँद को
और मुक्त कर दे
मेरे सूर्य को
ग्रहन से।
नेहल
Poetry , my poems © Copyright 2017, Nehal
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घरौंदे (Posted on December 13, 2015)
जो
छोड़ आये है पीछे ;
वोह गलियाँ वोह मकान
वोह दीवारें वोह दरीचे
अपनी शक़्ल
भूल चुके हैं !
गुजरी हवाओं के थपेड़ोंमे
अपने अहसास के पत्ते
खो चुके है!
आज
मेरा माज़ी
अपनी सफर से भटक गया है
जानी पहचानी राहों के
बदले रंगरूपमें
कहीं बह गया है!
आंसुओं की ओस से
क्या कभी
वीरानों को हरे होते
देखा
है?
सुना है
गीली मिट्टीओं में
उग जाते तो है तिनके
घरौंदों
को कैसे
उगाए कोई?!
नेहल
Poetry , my poems © Copyright 2015, Nehal
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इश्क (Posted on August 28, 2015)
थक चुके
इस प्यास की सिलवटें
गिनते गिनते
आओ
इन सिलवटों के समंदर में
डूब जाते हैं…
शायद
ये इश्क
नाव बनकर
उभर आए ।
नेहल
Poetry , my poems © Copyright 2015, Nehal
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नज़्म ( zen poem ) (Posted on December 9, 2016)
पीली पत्तीओं के रास्तो से हो कर पहुंचे हैं;
उन मौसमो के मकाम पर,
जहां अब तक एक डाल हरी भरी सी है!
फूलों और काँटों से परे,
तितलीओं और भवरों से अलग,
मौसम के बदलते मिज़ाज ठहर गए है वहां!
ढूँढते नहीं वे अब
बहारो के निशान।
डरते नहीं
पतझड़ की तेज हवाओं के
थपेडो से।
हरी भरी डाली झुकी है जिस
निली सी नदी पर
जहां अब पानीओंमें अक्स
बनते-बिगडते नहीं।
समय का फूल;
अब न सूरज की गर्मी से झुलसता है,
न बारिषों में बहता है!
स्फटिक सा रंगहीन फूल
समाये हुए है सारे रंग
अपने अंदर।
सुकून के पाखी
जीते है उसी की
ओस की बुंदो पर।
नेहल
Poetry, my poems © Copyright 2016, Nehal
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लम्हे (Posted on April 28, 2017)
दिन की गठरी खोल
समेट रही हूँ
होले होले गिरते लम्हे
बूँदों-से छलककर टपकते लम्हे
पत्तों-से गिरते, उठते लम्हे
फूलों-से खिलते, मुरझाते लम्हे
हवाओं-से बहते, हाथमें न आते लम्हे
रेत-से फिसलते, सरकते लम्हे
पलकों से भागे सपनों-से
नीमपके फल, लम्हे !
कभी सहरा सी धूप में ओढ़े हुए बादल लम्हे
तो कभी सर्दियों में हथेली पे पिधलते
धूप के टुकड़े लम्हे
सिरों को खिंच कर जब तक
बाँधू दिन की गठरी
रात की टोकरी
खूल जाती हैं
तारों से जड़े ढक्कन पर
चमकते लम्हे
पलकों पर सपनोकी सेज सजाते लम्हे
अपने कंधे पर उठाये नींदों के पैगाम;
झूकते, थक कर चूर लम्हे ।
सुबहो-शाम की गठरी और टोकरी
बाँधने-खोलने में बीत रही है ज़िंदगी
क्यूँ बाँधू ईनको?
क्यूँ सजाऊं इनसे अपने मन की अटारी?
छोड दूँ गठरी के सिरों को खूला ही
बनालूँ रात के आसमाँ को टोकरी का ढक्कन
जीया जो पल उसे
बहा दूँ समय की नदीमें
दिया बनाकर!
या हवा के परों पर रखदूँ
डेन्डिलायन्स जैसे….
नेहल
Poetry, my poems © Copyright 2017, Nehal