ये ज़रूरी है कि आँखों का भरम क़ाएम रहे
नींद रक्खो या न रक्खो ख़्वाब मेयारी रखो
( मेयारी – qualitative)
राहत इंदौरी
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तू शाहीं है परवाज़ है काम तेरा
तिरे सामने आसमाँ और भी हैं (शाहीं= eagle)
अल्लामा इक़बाल
ब्लोग जगत के मेरे मित्रों, अपने ब्लोग के पाँच साल पूरे होने की खुशी आप सब से बाँटते हुए बहुत अच्छा लग रहा है। आप सब की हौसला अफ़्ज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया। आज सबसे ज्यादा पढ़ी गई पाँच पोस्ट फिर से यहाँ पेश कर रही हूँ।उम्मीद है आप पसंद करेंगे।
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रात पश्मीने की – गुलज़ार (Posted on 25th August 2015)
ऐसे आई है तेरी याद अचानक
जैसे पगडंडी कोई पेड़ों से निकले
इक घने माज़ी के जंगल में मिली हो । ।
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जिस्म के खोल के अन्दर ढूंढ़ रहा हूँ और कोई
एक जो मैं हूँ , एक जो कोई और चमकता है
एक मयान में दो तलवारें कैसे रहती है
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जिस्म और ज़ाँ टटोल कर देखें
ये पिटारी भी खोल कर देखें
टूटा फूटा अगर ख़ुदा निकले-!
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तमाम सफ़हे क़िताबों के फड़फड़ाने लगे
हवा धकेल के दरवाज़ा आ गई घर में !
कभी हवा की तरह तुम भी आया जाया करो !!
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आँखो और कानों में कुछ सन्नाटे से भर जाते हैं
क्या तुम ने उड़ती देखी है, रेत कभी तन्हाई की
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किस में रखी है सुबह की धड़कन
गुन्चा गुन्चा टटोलती है रात
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गुलों को सुनना ज़रा तुम सदायें भेजी है
गुलों के हाथ बहुत सी दुआयें भेजी है
जो आफ़ताब कभी भी गुरुब होता नहीं
वो दिल है मेरा उसी की शु’आयें भेजी है
तुम्हारी ख़ुश्क सी आँखें भली नहीं लगती
वह सारी यादें जो तुमको रुलायें भेजी है
स्याह रंग , चमकती हुई किनारी है
पहन लो अच्छी लगेंगी घटायें भेजी है
तुम्हारे ख़्वाब से हर शब लिपट के सोते है
सज़ायें भेज दो हम ने खतायें भेजी है
अकेला पत्ता हवा में बहुत बुलंद उड़ा
ज़मी से पाँव उठाओ, हवायें भेजी है
-गुलज़ार [ रात पश्मिने की]
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चुनिंदा अशआर- बशीर बद्र (1) (Posted on 15th July 2015)
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में ज़िन्दगी की शाम हो जाए ।
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उसके लिए तो मैंने यहा तक दुआयें की
मेरी तरह से कोई उसे चाहता भी हो ।
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आखो में रहा, दिल में उतर कर नहीं देखा
कश्ती के मुसाफिर ने समन्दर नहीं देखा ।
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कभी बरसात में शादाब बेलें सूख जाती है
हरे पेड़ो के गिरने का कोई मौसम नहीं होता ।
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कभी सात रंगो का फूल हूँ कभी धूप हूँ कभी धूल हूँ
मैं तमाम कपड़े बदल चुका तिरे मौसमों की बरात में ।
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इरादे हौसले, कुछ ख्वाब कुछ भूली हुई यादें
गज़ल के एक धागे में कई मोती पिरोए है ।
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बारिश बारिश कच्ची क़ब्र का घुलना है
जां लेवा एहसास अकेले रहने का ।
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पलकें भी चमक उठती है सोते में हमारी
आँखो को अभी ख़्वाब छुपाने नहीं आते ।
—-बशीर बद्र
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कुछ चुनिंदा अशआर- बशीर बद्र (2) (Posted on 2nd Feb 2016)
हम भी दरया हैं हमें अपना हुनर मालूम है
जिस तरफ़ भी चल पड़ेंगे रास्ता हो जाएगा
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जिस दिन से चला हूँ मिरी मंज़िल पे नज़र है
आँखों ने कही मील का पत्थर नहीं देखा
……….
कही यूँ भी आ मिरी आँखमें कि मिरी नज़र को ख़बर न हो
मुझे एक रात नवाज़ दे, मगर उसके बाद सहर न हो
…………
मुहब्बतों में दिखावे की दोस्ती न मिला
अगर गले नहीं मिलता तो हाथ भी न मिला
……………
गर्म कपड़ों का सन्दूक़ मत खोलना, वर्ना यादों की काफूर जैसी महक
खून में आग बन कर उतर जायेगी, सुब्ह तक ये मकाँ ख़ाक हो जायेगा
…………………….
ख़ुदा की इतनी बड़ी काइनात में मैंने
बस एक शख़्स को माँगा मुझे वही न मिला
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घड़ी दो घड़ी हम को पलकों पे रख
यहाँ आते आते ज़माने लगे
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ख़ुदा ऐसे एहसास का नाम है
रहे सामने ओर दिखाई न दे
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लेहजा कि जैसे सुब्ह की ख़ुश्बू अज़ान दे
जी चाहता है मैं तिरी आवाज़ चूम लूँ
…………….
अपने आंगन की उदासी से ज़रा बात करो
नीम के सूखे हुए पेड़ को सन्दल कर दो
……………..
सन्नाटे की शाख़ों पर कुछ ज़ख़्मी परिन्दे हैं
ख़ामोशी बज़ाते खुद आवाज़ का सेहरा है
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नाहा गया था मैं कल जुग्नुओं की बारिश में
वो मेरे कांधे पे सर रख के खूब रोई थी
…………….
चमकती है कहीं सदियों में आंसुओं से ज़मीं
ग़ज़ल के शेर कहाँ रोज़ रोज़ होते हैं
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वक़्त के होंट हमें छू लेंगे
अनकहे बोल हैं गा लो हमको
– बशीर बद्र
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चुनिंदा अशआर- बशीर बद्र (3)(Posted on 12th Jan 2018)
धूप की चादर मिरे सूरज से कहना भेज दे
गुर्बतों का दौर है जाड़ों की शिददत है बहुत
……
उन अँधेरों में जहाँ सहमी हुई थी ये ज़मीं
रात से तनहा लड़ा, जुगनू में हिम्मत है बहुत
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तारों भरी पलकों की बरसायी हुई ग़ज़लें
है कौन पिरोये जो बिखरायी हुई ग़ज़लें
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पास से देखो जुगनू आँसू, दूर से देखो तारा आँसू
मैं फूलों की सेज पे बैठा आधी रात का तनहा आँसू
………
मेरी इन आँखों ने अक्सर ग़म के दोनों पहलू देखे
ठहर गया तो पत्थर आँसू, बह निकला तो दरिया आँसू
……….
उदासी पतझड़ों की शाम ओढ़े रास्ता तकती
पहाड़ी पर हज़ारों साल की कोई इमारत-सी
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मुझे लगता है दिल खिंचकर चला आता है हाथों पर
तुझे लिक्खूँ तो मेरी उँगलियाँ एसी धड़कती हैं
………..
लौ की तरह चिराग़ का क़ैदी नहीं हूँ मैं
अच्छा हुआ कि अपना मकाँ कोई भी न था
………….
दिल पर जमी थीं गर्द-ए-सफ़र की कई तहें
काग़ज़ पे उँगलियों का निशाँ कोई भी न था
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मैं चुप रहा तो और ग़लतफ़हमियाँ बढ़ीं
वो भी सुना है उसने जो मैंने कहा नहीं
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चेहरे पे आँसुओं ने लिखी हैं कहानियाँ
आईना देखने का मुझे हौसला नहीं
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फ़न अगर रुह-ओ-दिल की रियाज़त न हो
ऐसी मस्जिद है जिसमें इबादत न हो
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लहू का समन्दर है पलकों के पिछे
ये रोशन जज़ीरे लरज़ते रहेंगे
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अज़ल से अबद तक सफ़र ही सफ़र है
मुसाफ़िर हैं सबलोग चलते रहेंगे
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नींद तरसेगी मेरी आँखों को
जब भी ख़्वाबों से दोस्ती होगी
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ख़्वाब आईने हैं, आँखों में लिए फिरते हो
धूप में चमकेंगे टूटेंगे तो चुभ जायेंगे
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तारों की आँखों में किरनों के नेज़े
सूरज के सीने में चुभी हुई शाम
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तिरे इख़्तियार में क्या नहीं
मुझे इस तरह से नवाज़ दे
यूँ दुआएँ मेरी क़बूल हों
मिरे लब पे कोई दुआ न हो
रियाज़त= तपस्या,जज़ीरे=द्वीप समूह, अज़ल = अनादि काल, अबद = अनंत काल
बशीर बद्र
(रोशनी के घरौंदे – बशीर बद्र की ग़ज़लें)
सम्पादक सुरेश कुमार
लिप्यंतरण सुनिज कुमार शर्मा
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मीर तक़ी मीर (1722-23 – 1810) (Posted on 22nd Jan 2016)
उर्दू के पहले सबसे बड़े शायर जिन्हें ‘ ख़ुदा-ए-सुख़न, (शायरी का ख़ुदा) कहा जाता है।
कुछ चुनिंदा अशआर
दिल से रुख़सत हुई कोई ख़्वाहिश
गिर्या कुछ बे-सबब नहीं आता
गिर्या- weeping, lamentation
हम ख़ुदा के कभी क़ाइल ही न थे
उन को देखा तो ख़ुदा याद आया
क़ाइल- convince, acknowledge
हस्ती अपनी हबाब की सी है
ये नुमाइश सराब की सी है
हबाब- bubble
उसके फ़रोग-ए-हुस्न से झमके है सब में नूर
शम-ए-हरम हो या हो दिया सोमनात का
फ़रोग-ए-हुस्न- splendor of beauty, शम-ए-हरम- the light of Kaabaa
रु-ए-सुखन है कीधर अहल-ए-जहाँ का या रब
सब मुत्तफ़िफ़ हैं इस पर हर एक का ख़ुदा है
रु-ए-सुखन= face of poetry, अहल-ए-जहाँ= people of the world, मुत्तफ़िफ़ =agreeing, united
‘मीर’ बंदों से काम कब नीकला
माँगना है जो कुछ ख़ुदा से माँग
‘मीर’ साहब तुम फ़रिश्ता हो तो हो
आदमी होना तो मुश्किल है मियाँ
मत सहल हमें जानो फिरता है फ़लक बरसों
तब ख़ाक के पर्दे से इंसान निकलते हैं
ये जो मोहलत जिसे कहे हैं उम्र
देखो तो इंतिज़ार सा है कुछ
सरापा आरज़ू होने ने बंदा कर दिया मुझ को
वगरना हम ख़ुदा थे गर दिल-ए-बे-मुद्दआ होते
सरापा= human figure from head to foot, दिल-ए-बे-मुद्दआ= a heart without desire, वगरना= otherwise
बे-खुदी ले गई कहाँ हम को
देर से इंतिज़ार है अपना
मुझ को शायर न कहो मीर कि साहब मैं ने
दर्द ओ ग़म कितने किए जम्अ तो दीवान किया
तुझी पर कुछ ए बुत नहीं मुनहसिर
जिसे हम ने पूजा ख़ुदा कर दिया
मुनहसिर= dependent on,resting on
परस्तिश की याँ तक कि ए बुत तुझे
नज़र में सभों की ख़ुदा कर चले
परस्तिश= worshiped,बुत= idol
ले साँस भी आहिस्ता कि नाज़ुक है बहुत काम
आफ़ाक़ की इस कारगह-ए-शीशागरी का
आफ़ाक़= the world, कारगह-ए-शीशागरी= workshop of glass-making
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दिल के काबे में नमाज़ पढ़ – नीरज (Posted on 1st April 2017)
दिल के काबे में नमाज़ पढ़
दिल के काबे में नमाज़ पढ़, यहां-वहां भरमाना छोड़।
सांस-सांस तेरी अज़ान है, सुबह शाम चिल्लाना छोड़।
उसका रुप न मस्जिद में है
उसकी ज्योति न मंदिर में
जिस मोती को ढूंढ़ रहा तू,
वो है दिल के समुन्दर में।
मन की माला फेर, हाथ की यह तस्वीह घुमाना छोड़।
दिल के काबे में नमाज़ पढ़, यहां-वहां भरमाना छोड़।
जो कुछ बोले हैं पैगम्बर,
वही कहा सब संतों ने,
लेकिन उसके मानी बदले
सारे भ्रष्ट महन्तों ने ।
पंडित-मुल्ला सब झूठे हैं, इनसे हाथ मिलाना छोड़।
दिल के काबे में नमाज़ पढ़, यहां-वहां भरमाना छोड़।
खुदा ख़लक से अलंग नहीं है,
इसमें ही वो समाया है,
जैसे तुझमें ही पोशिदा,
तेरा अपना साया है।
दुनिया से मत दूर भाग, बस खुद से दौड़ लगाना छोड़।
दिल के काबे में नमाज़ पढ़, यहां-वहां भरमाना छोड़।
पूजा पाठ, नमाज-जाप
सब छलना और दिखावा है
दिल है तेरा साफ तो
तेरा घर ही काशी काबा है।
मकड़जाल है ये सब के, इनका ताना-बाना छोड़।
दिल के काबे में नमाज़ पढ़, यहां-वहां भरमाना छोड़।
तू ही तो संसारी है रे
और तू ही संसार भी है,
कैदी तू ही जेल भी तू ही
तू ही पहरेदार भी है।
तीन गुनों वाली रस्सी में, अब तो गांठ लगाना छोड़।
दिल के काबे में नमाज़ पढ़, यहां-वहां भरमाना छोड़।
महाकवि डॉ गोपालदास नीरज ( born 4th jan 1925 )
[‘कारवां गुज़र गया’ से]
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अहमद फ़राज़ – चुनिंदा अशआर (Posted on 17th June 2016)
शायद कोई ख्वाहिश रोती रहती है
मेरे अन्दर बारिश होती रहती है।
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मैं चुप रहा तो सारा जहाँ था मेरी तरफ
हक बात की तो कोई कहाँ था मेरी तरफ।
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मैंने सितमगरों को पुकारा है खुद ‘फराज़’
वरना किसी का ध्यान कहाँ था मेरी तरफ।
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कितना आसाँ था तेरे हिज्र में मरना जानाँ
फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते जाते
….
जब भी दिल खोल के रोए होंगे
लोग आराम से सोए होंगे
…..
वो सफ़ीने जिन्हें तूफ़ाँ न मिले
नाख़ुदाओं ने डुबोए होंगे
…..
रफ़्ता-रफ़्ता यही ज़िंदाँ में बदल जाते हैं
अब किसी शहर की बुनियाद न डाली जाए
ज़िंदाँ – जेल
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इतना मानूस न हो ख़िलवते-ग़म से अपनी
तू कभी ख़ुद को भी देखेगा तो डर जाएगा
मानूस – परिचित, ख़िलवते-ग़म – ग़म की तनहाई
…..
मुद्दतों बाद भी यह आलम है
आज ही तू जुदा हुआ जैसे
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शब सुलगती है दोपहर की तरह
चाँद, सूरज से जल बुझा जैसे
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अपने सिवा हमारे न होने का ग़म किसे
अपनी तलाश में तो हमीं हम हैं दोस्तो
….
हर तमाशाई फ़क़त साहिल से मंज़र देखता
कौन दरिया को उलटता कौन गौहर देखता
गौहर- हीरे
….
अलफ़ाज़ थे कि जुगनू आवाज़ के सफ़र में
बन जाए जंगलों में जिस तरह रास्ता-सा
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होश आया तो सभी ख़्वाब थे रेज़ा-रेज़ा
जैसे उड़ते हुए औराक़े-परीशाँ जानाँ
रेज़ा-रेज़ा – टुकड़े-टुकड़े, औराक़े-परीशाँ- बिखरे पृष्ठ
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वो चाँद था मेरे बाजुओं में
आगोश था आसमान मेरा
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इक शब था वो महेमान मेरा
कुछ और ही था जहान मेरा
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तू कभी चाँदनी थी धूप था मैं
अब तो साए हुए हैं हम दोनों
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इश्क कैसा कहाँ का अहद ‘फराज़’
घर बसाए हुए हैं हम दोनों
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जहाँ भी जाना तो आँखों में ख़्वाब भर लाना
ये क्या कि दिल को हमेशा उदास कर लाना
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मैं बर्फ बर्फ रुतों में चला तो उसने कहा
पलट के आना तो कश्ती में धूप भर लाना
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मुझको साक़ी से गिला है तो तुनक-बख़्शी का
ज़हर भी दे तो मेरे जाम को भर-भर कर दे
तुनक-बख़्शी – कम देना
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कभी तो हमको भी बख़्शे वो अब्र का टुकड़ा
जो आसमान को नीली रिदाएँ देता है
रिदाएँ – चादरें
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रात-भर हँसते हुए तारों ने
उनके आरिज़ भी भिगोए होंगे
आरिज़- गाल
– अहमद फ़राज़
ग़ज़लें, नज़्में, शेर और जीवनी
संपादक -कन्हैयालाल नंदन