जिनके नामों पे आज रस्ते हैं
वे ही रस्तों की धूल थे पहले
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अन्नदाता हैं अब गुलाबों के
जितने सूखे बबूल थे पहले
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मूरतें कुछ निकाल ही लाया
पत्थरों तक अगर गया कोई
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यहाँ रद्दी में बिक जाते हैं शाइर
गगन ने छोड़ दी ऊँचाइयाँ हैं
कथा हर ज़िंदगी की द्रोपदी-सी
बड़ी इज़्ज़त-भरी रुस्वाइयाँ हैं
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अपने घर में ही अजनबी की तरह
मैं सुराही में इक नदी की तरह
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तुझ पे मरते हैं ज़िन्दगी अब भी
झूठ लिक्खें तो ये क़लम टूटे
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सौ दुखों का सितार हर चेहरा
तार पर तार कस रहा है ख़ून
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बाग़बाँ हो गये लकड़हारे
हाल पूछा तो रो पड़े हैं पेड़
उम्र भर रासतों पे रहते हैं
शायरी पर सभी पड़े हैं पेड़
अपना चेहरा निहार लें ऋतुएँ
आईनों की तरह जड़े हैं पेड़
– सूर्यभानु गुप्त