अपने गिर्द-ओ-पेश का भी कुछ पता रख
दिल की दुनिया तो मगर सब से जुदा रख

लिख बयाज़-ए-मर्ग में हर जा अनल-हक़
और किताब-ए-ज़ीस्त में बाब-ए-ख़ुदा रख

उस की रंगत और निखरेगी ख़िज़ाँ में
ये ग़मों की शाख़ है इस को हरा रख

आ ही जाएगी उदासी बाल खोले
आज अपने दिल का दरवाज़ा खुला रख

यूँ भी बह जाएगा सब सैल-ए-बला में
अपने घर के सब दर-ओ-दीवार ढा रख

ना-मुरादी का उन्हें भी तजरबा हो
उन के रस्ते में भी कोई सानेहा रख

सनसनाती रात के आने से पहले
दिल में जाती धूप का टुकड़ा सजा रख

बेश-क़ीमत हैं ये दिल के ज़ख़्म ‘पाशी’
इन चराग़ों को हवाओं से बचा रख
– कुमार पाशी (1935-1992)

… … … … …

गिर्द-ओ-पेश = on all sides, all round; बयाज़-ए-मर्ग = book of death, जा = जगह, स्थान, अनल-हक़ = I am Truth, I am God( Sufi Mansoor was hanged for saying Anal Haq),
किताब-ए-ज़ीस्त = book of life, बाब-ए-ख़ुदा = door, gate of God, ख़िज़ाँ = autumn, decay, old age, सैल-ए-बला = flood of adversity, ना-मुरादी = failure, unfulfilled wishes, सानेहा = an accident, disaster.

source : rekhta.org

One thought on “ग़ज़ल – कुमार पाशी

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