कुछ चुनिंदा अशआर :
सिर्फ़ शाइ’र देखता है क़हक़हों की असलियत
हर किसी के पास तो ऐसी नज़र होगी नहीं
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लोग हाथों में लिए बैठे हैं अपने पिंजरे
आज सय्याद को महफ़िल में बुला लो यारो
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मिरी ज़बान से निकली तो सिर्फ़ नज़्म बनी
तुम्हारे हाथ में आई तो एक मशाल हुई
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ये ज़बाँ हम से सी नहीं जाती
ज़िंदगी है कि जी नहीं जाती
इन फ़सीलों में वो दराड़ें हैं
जिन में बस कर नमी नहीं जाती
देखिए उस तरफ़ उजाला है
जिस तरफ़ रौशनी नहीं जाती
शाम कुछ पेड़ गिर गए वर्ना
बाम तक चाँदनी नहीं जाती
एक आदत सी बन गई है तू
और आदत कभी नहीं जाती
मय-कशो मय ज़रूरी है लेकिन
इतनी कड़वी कि पी नहीं जाती
मुझ को ईसा बना दिया तुम ने
अब शिकायत भी की नहीं जाती
– दुष्यंत कुमार (1933-1975) (‘साये में धूप’)66th edition 2018
फ़सीलों = boundaries; बाम = the roof of a house, terrace,छत, चबूतरा, अटारी
Mujh Ko isa banake ..
Wah Wah ..kya khoob
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