अब
कोई फूल नहीं रहा
न वे फूल ही
जो अपने अर्थों को अलग रख कर भी
एक डोरी में गुँथ जाते थे
छोटे-से क्षण की
लम्बी डोरी में ।
अब मौसम बदल गया है
और टहनियों की नम्रता
कभी की झर गई है —
मैं अनुभव करती हूँ
बिजली का संचरण
बादलों में दरारें डालता
और उनकी सींवन में
अपलक लुप्त होता —
मैंने अपने को समेटना शुरू कर दिया है
बाहर केवल एक दिया रख कर
उसके प्रति
जो पहले अन्दर था
प्रकाशित मन के केन्द्र में
और अब बाहर रह सकता है
उस दीये के नीचे के
अँधेरे में
अब मैंअपने को अलग कर रही हूँ
समय के गुँथे हुए अर्थों से
और लौट रही हूँ
अपने ‘शब्द-गृह’ में
जहाँ
अभी पिछले क्षण
टूट कर गिरा था आकाश
और अब एक छोटी-सी
ठण्डी चारदीवारी है ।
अमृता भारती (जन्म 1939)
आधुनिक हिन्दी कविता की विशिष्ट हस्ताक्षर और हिन्दी की दार्शनिक कवि।
source :kavitakosh.org