रात पहाड़ों पर कुछ और ही होती है…
रात पहाड़ों पर कुछ और ही होती है…
आस्मान बुझता ही नहीं,
और दरिया रौशन रहता है
इतना ज़री का काम नज़र आता है फ़लक पे तारों का
जैसे रात में ‘प्लेन’ से रौशन शहर दिखाई देते हैं!
पास ही दरिया आँख पे काली पट्टी बाँध के
पेड़ों के झुरमुट में
कोड़ा जमाल शाही, “आई जुमेरात आई…. पीछे देखे शामत आई…”
दौड़-दौड़ के खेलता है!
कंघी रखके दाँतों में
आवाज़ किया करती है हवा
कुछ फटी-फटी… झीनी-झीनी…
बालिग़ होते लड़कों की तरह!
इतना ऊँचा-ऊँचा बोलते हैं दो झरने आपस में
जैसे एक देहात के दोस्त अचानक मिलकर वादी में
गाँव भर का पूछते हों…
नज़म भी आधी आँखें खोल के सोती है
रात पहाड़ों पर कुछ और ही होती है!!
– गुलज़ार
‘पन्द्रह पाँच पचहत्तर’ से
बहुत ही अच्छा लिखा है आपने।
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गुलज़ार साहब की रचना है जो मुझे बहुत पसंद है।
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