आ गया था ऐसा वक्त
कि भूमिगत होना पड़ा
अंधेरे को
नहीं मिली
कोई
सुरक्षित जगह
उजाले से ज्यादा।
छिप गया वह
उजाले में कुछ यूं
कि शक तक नहीं
हो सकता किसी को
कि अंधेरा छिपा है
उजाले में।
जबकि
फिलहाल
चारों ओर
उजाला ही उजाला है!
…………………………
अंधेरी रात में सड़कों पर दूधिया बारिश हो रही है
और
लोग अपने-अपने बिस्तरों पर
लिहाफ़ों में दुबके
नींद आने से पहले
उन पहाड़ों के बारे में सोच रहे हैं
जिनकी ऊँचाइयों तक
बादल कभी नहीं पहुँच पाते। छत से
परे के आकाश को वे सिर्फ़ सपनों में
मंज़ूर करेंगे। और
सबेरे तक
वे पंख झड़ चुकेंगे
जिनके सहारे उन्होंने अतीत और भविष्य के बीच
उड़ानें भरी होंगी
रात में
(रचनाकाल :12.09.1975)
– वेणु गोपाल (मूल नाम: नंदकिशोर शर्मा 22 Octo. 1942-1 Sept.2008)
source: kavitakosh.org