काँच के पीछे चाँद भी था
काँच के पीछे चाँद भी था और काँच के ऊपर काई भी
तीनों थे हम, वो भी थे, और मैं भी था, तनहाई भी
यादों की बौछारों से जब पलकें भीगने लगती हैं
सोंधी-सोंधी लगती है तब माज़ी की रुसवाई भी
दो-दो शक्लें दिखती हैं इस बहके-से आईने में
मेरे साथ चला आया है, आप का इक सौदाई भी
कितनी जल्दी मैली करता है पोशाकें, रोज़ फ़लक़
सुबह ही रात उतारी थी और शाम को शब पहनायी भी
ख़ामोशी का हासिल भी इक लम्बी-सी ख़ामोशी थी
उन की बात सुनी भी हमने, अपनी बात सुनायी भी
कल साहिल पर लेटे-लेटे, कितनी सारी बातें की
आप का हुंकारा न आया, चाँद ने बात करायी भी
गुलज़ार (यार जुलाहे….)
सम्पादन यतीन्द्र मिश्र
काँच के पीछे चाँद भी था और काँच के ऊपर काई भी
तीनों थे हम, वो भी थे, और मैं भी था, तनहाई भी
one of the best !!
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पहली पंक्ती फहोत ही सुंदर👌
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