कभी यूँ ही अकेले बैठना अच्छा लगता है।
चुपचाप से;
अपने-आप से भी खामोश रहना,
अच्छा लगता है।
मन की गुफाओ में बहते झरनों की
धून सुनना, गुनगुनाना
अच्छा लगता है।
कभी दिल के दरवाज़ों को बंद रखना
दस्तकों से बेपरवा होना
अच्छा लगता है।
दिल के बाग की खूशबूओं में
खोना, महकना
अच्छा लगता है।
ख़ामोशी की शांत पहाड़ीओं के
पीछे से बहती है
इक नीली सी नदी
उस के शीतल, निर्मल जलमें
भीगना, बहना
अच्छा लगता है।
हवाएँ मन की अटारीओं से बहते
शब्द के अनेक स्वर छेड जाती है
उसके ध्वनित तरंगो को मौनमें डूबोना
अच्छा लगता है।
– नेहल
Poetry, my poems © Copyright 2017, Nehal
Very beautiful.
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Thanks for visiting my blog and appreciating 😊
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बहुत अच्छा लिखा है… सराहनीय…
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आभार! 😊
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