ख़ुदी वो बहर है जिस का कोई किनारा नहीं

ख़ुदी वो बहर है जिस का कोई किनारा नहीं
तू आबजू इसे समझा अगर तो चारा नहीं

तिलिस्म-ए-गुंबद-ए-गर्दूं को तोड़ सकते हैं
ज़ुजाज की ये इमारत है संग-ए-ख़ारा नहीं

ख़ुदी में डूबते हैं फिर उभर भी आते हैं
मगर ये हौसला-ए-मर्द-ए-हेच-कारा नहीं

तिरे मक़ाम को अंजुम-शनास क्या जाने
कि ख़ाक-ए-ज़िदा है तू ताबा-ए-सितारा नहीं

यहीं बहिश्त भी है हूर ओ जिबरईल भी है
तिरी निगह में अभी शोख़ी-ए-नज़ारा नहीं

मिरे जुनूँ ने ज़माने को ख़ूब पहचाना
वो पैरहन मुझे बख़्शा कि पारा पारा नहीं

ग़ज़ब है ऐन-ए-करम में बख़ील है फ़ितरत
कि लाल-ए-नाब में आतिश तो है शरारा नहीं
अल्लामा इक़बाल (1877-1938)

ख़ुदी- egotism,self-respect, pride, ego; बहर- meter of poetry, a verse, a sea
आबजू- a stream, rivulet, brook; तिलिस्म-ए-गुंबद-ए-गर्दूं- the magic of dome of sky;
ज़ुजाज- glass; संग-ए-ख़ारा- a hard stone, flint; हौसला-ए-मर्द-ए-हेच-कारा- courage of a useless fellow; अंजुम-शनास- astrologer; ख़ाक-ए-ज़िदा- live dust; ताबा-ए-सितारा- obedient to stars; बहिश्त- heaven; जिबरईल- Gabriel, archangel; शोख़ी-ए-नज़ारा- cheerfulness of the spectacle; पारा- a piece, a bit, a fragment, Mercury; 
ऐन-ए-करम- the real favour; 
बख़ील- miser;फ़ितरत- creation, nature; लाल-ए-नाब-clear ruby; 
शरारा- spark of fire, a flash, a gleam

2 thoughts on “ख़ुदी वो बहर है जिस का कोई किनारा नहीं

    1. Thanks for your visit and appreciation! I always like to read Iqbal, his words are full of inspiration…जोश, खुमार ! They are full of life!

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