ख़लाओं में तैरते जज़ीरों पे चम्पई धूप देख कैसे बरस रही है
महीन कोहरा सिमट रहा है
हथेलियों में अभी तलक तेरे नर्म चेहरे का लम्स एेसे छलक रहा है
कि जैसे सुबह को ओक में भर लिया हो मैंने
बस एक मध्दम-सी रोशनी मेरे हाथों-पैरों में बह रही है
तेरे लबों पर ज़बान रखकर
मैं नूर का वह हसीन क़तरा भी पी गया हूँ
जो तेरी उजली धुली हुई रूह से फिसलकर तेरे लबों पर ठहर गया था
ख़लाओं – शून्य , जज़ीरों – द्वीप , लम्स – स्पर्श
गुलज़ार ( कुछ और नज़्में )
बहोत उमदा रचना👍
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Thanks!
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