बूंदे
धूँधले शीशों पर सरकती बूंदे।
बारिष के रुकने पर पेडोंके पत्तो से बरसती बूंदे।
कभी सोने सी; कभी हीरे सी चमकती बूंदे।
परिंदे की गरदन पर थिरकती बूंदे।
अपनी कोख में समाये हुए कइ इन्द्रधनु,
फलक को रंग देती बूंदे!
प्यासे की हलक से उतरते,
दरिया बन जाती बूंदे!
आँखों में छूप के बैठे तो;
कभी सितारों का झुरमुट, तो कभी ओस
और कहीं उमडकर बहती सैलाब बूंदे!
फूलों का शहद, सिपीओं का मोती
थोडी थोडी सब में मिलती बूंदे।
अपनी पानी की ऊँगली से;
कभी जलतरंग तो कभी छपरो पर मृदंग बजाती बूंदे।
– नेहल