I simply love this poem for its simplicity of words and high philosophy behind this! Very few writers can achieve this!
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हम्द
नील गगन पर बैठे
कब तक
चाँद सितारों से झाँकोगे।
पर्वत की ऊँची चोटी से
कब तक
दुनिया को देखोगे।
आदर्शो के बन्द ग्रन्थों में
कब तक
आराम करोगे।
मेरा छप्पर
टपक रहा है
बनकर सूरज
इसे सुखाओ।
खाली है
आटे का कनस्तर
बनकर गेहूँ
इसमें आओ।
माँ का चश्मा
टूट गया है
बनकर शीशा
इसे बनाओ।
चुप-चुप हैं आँगन में बच्चे
बनकर गेंद
इन्हें बहलाओ।
शाम हुई है चाँद उगाओ
पेड़ हिलाओ
हवा चलाओ।
काम बहुत हैं
हाथ बटाओ
अल्ला मियाँ
मेरे घर भी आ ही जाओ
अल्ला मियाँ….!
– निदा फ़ाज़ली
हम्द – प्रार्थना
लाजवाब
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Shukriya!
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