अहमद फ़राज़ – चुनिंदा अशआर

चुनिंदा अशआर

शायद कोई ख्वाहिश रोती रहती है
मेरे अन्दर बारिश होती रहती है।
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मैं चुप रहा तो सारा जहाँ था मेरी तरफ
हक बात की तो कोई कहाँ था मेरी तरफ।
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मैंने सितमगरों को पुकारा है खुद ‘फराज़’
वरना किसी का ध्यान कहाँ था मेरी तरफ।
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कितना आसाँ था तेरे हिज्र में मरना जानाँ
फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते जाते
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जब भी दिल खोल के रोए होंगे
लोग आराम से सोए होंगे
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वो सफ़ीने जिन्हें तूफ़ाँ न मिले
नाख़ुदाओं ने डुबोए होंगे
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रफ़्ता-रफ़्ता यही ज़िंदाँ में बदल जाते हैं
अब किसी शहर की बुनियाद न डाली जाए

ज़िंदाँ – जेल
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इतना मानूस न हो ख़िलवते-ग़म से अपनी
तू कभी ख़ुद को भी देखेगा तो डर जाएगा

मानूस – परिचित         ख़िलवते-ग़म – ग़म की तनहाई
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मुद्दतों बाद भी यह आलम है
आज ही तू जुदा हुआ जैसे
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शब सुलगती है दोपहर की तरह
चाँद, सूरज से जल बुझा जैसे

अपने सिवा हमारे न होने का ग़म किसे
अपनी तलाश में तो हमीं हम हैं दोस्तो
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हर तमाशाई फ़क़त साहिल से मंज़र देखता
कौन दरिया को उलटता कौन गौहर देखता

गौहर- हीरे
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अलफ़ाज़ थे कि जुगनू आवाज़ के सफ़र में
बन जाए जंगलों में जिस तरह रास्ता-सा
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होश आया तो सभी ख़्वाब थे रेज़ा-रेज़ा
जैसे उड़ते हुए औराक़े-परीशाँ जानाँ

रेज़ा-रेज़ा – टुकड़े-टुकड़े                  औराक़े-परीशाँ- बिखरे पृष्ठ
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वो चाँद था मेरे बाजुओं में
आगोश था आसमान मेरा

इक शब था वो महेमान मेरा
कुछ और ही था जहान मेरा
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तू कभी चाँदनी थी धूप था मैं
अब तो साए हुए हैं हम दोनों
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इश्क कैसा कहाँ का अहद ‘फराज़’
घर बसाए हुए हैं हम दोनों
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जहाँ भी जाना तो आँखों में ख़्वाब भर लाना
ये क्या कि दिल को हमेशा उदास कर लाना
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मैं बर्फ बर्फ रुतों में चला तो उसने कहा
पलट के आना तो कश्ती में धूप भर लाना
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मुझको साक़ी से गिला है तो तुनक-बख़्शी का
ज़हर भी दे तो मेरे जाम को भर-भर कर दे

तुनक-बख़्शी – कम देना
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कभी तो हमको भी बख़्शे वो अब्र का टुकड़ा
जो आसमान को नीली रिदाएँ देता है

रिदाएँ – चादरें
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रात-भर हँसते हुए तारों ने
उनके आरिज़ भी भिगोए होंगे

आरिज़- गाल
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– अहमद फ़राज़
ग़ज़लें, नज़्में, शेर और जीवनी
संपादक -कन्हैयालाल नंदन

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