हम भी दरया हैं हमें अपना हुनर मालूम है
जिस तरफ़ भी चल पड़ेंगे रास्ता हो जाएगा
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जिस दिन से चला हूँ मिरी मंज़िल पे नज़र है
आँखों ने कही मील का पत्थर नहीं देखा
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कही यूँ भी आ मिरी आँखमें कि मिरी नज़र को ख़बर न हो
मुझे एक रात नवाज़ दे, मगर उसके बाद सहर न हो
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मुहब्बतों में दिखावे की दोस्ती न मिला
अगर गले नहीं मिलता तो हाथ भी न मिला
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गर्म कपड़ों का सन्दूक़ मत खोलना, वर्ना यादों की काफूर जैसी महक
खून में आग बन कर उतर जायेगी, सुब्ह तक ये मकाँ ख़ाक हो जायेगा
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ख़ुदा की इतनी बड़ी काइनात में मैंने
बस एक शख़्स को माँगा मुझे वही न मिला
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घड़ी दो घड़ी हम को पलकों पे रख
यहाँ आते आते ज़माने लगे
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ख़ुदा ऐसे एहसास का नाम है
रहे सामने ओर दिखाई न दे
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लेहजा कि जैसे सुब्ह की ख़ुश्बू अज़ान दे
जी चाहता है मैं तिरी आवाज़ चूम लूँ
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अपने आंगन की उदासी से ज़रा बात करो
नीम के सूखे हुए पेड़ को सन्दल कर दो
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सन्नाटे की शाख़ों पर कुछ ज़ख़्मी परिन्दे हैं
ख़ामोशी बज़ाते खुद आवाज़ का सेहरा है
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नाहा गया था मैं कल जुग्नुओं की बारिश में
वो मेरे कांधे पे सर रख के खूब रोई थी
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चमकती है कहीं सदियों में आंसुओं से ज़मीं
ग़ज़ल के शेर कहाँ रोज़ रोज़ होते हैं
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वक़्त के होंट हमें छू लेंगे
अनकहे बोल हैं गा लो हमको

–  बशीर बद्र

2 thoughts on “कुछ चुनिंदा अशआर- बशीर बद्र (2)

  1. दो शेरा और :

    तमाम रिश्तों को मैं घर पे छोड़ आया था,
    फिर उस के बाद मुझे कोई अजनबी नहीं मिला।

    उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
    न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए।

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  2. Waah , his style is unique , subtle but creates a long lasting impression on your mind! The more I read him , I want to read even more of his “Kalam” !

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