जो
छोड़ आये है पीछे ;
वोह गलियाँ वोह मकान
वोह दीवारें वोह दरीचे
अपनी शक़्ल
भूल चुके हैं !
गुजरी हवाओं के थपेड़ोंमे
अपने अहसास के पत्ते
खो चुके है!
आज
मेरा माज़ी
अपनी सफर से भटक गया है
जानी पहचानी राहों के
बदले रंगरूपमें
कहीं बह गया है!
आंसुओं की ओस से
क्या कभी
वीरानों को हरे होते
देखा
है?
सुना है
गीली मिट्टीओं में
उग जाते तो है तिनके
घरौंदों
को कैसे
उगाए कोई?!
– नेहल
3 thoughts on “घरौंदे -नेहल”
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Wow
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Nice expression
End of the poem is the heart !!!
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Thanks for your valuable feedback 😊
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