ऐसे आई है तेरी याद अचानक
जैसे पगडंडी कोई पेड़ों से निकले
इक घने माज़ी के जंगल में मिली हो । ।
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जिस्म के खोल के अन्दर ढूंढ़ रहा हूँ और कोई
एक जो मैं हूँ , एक जो कोई और चमकता है
एक मयान में दो तलवारें कैसे रहती है
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जिस्म और ज़ाँ टटोल कर देखें
ये पिटारी भी खोल कर देखें
टूटा फूटा अगर ख़ुदा निकले-!
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तमाम सफ़हे क़िताबों के फड़फड़ाने लगे
हवा धकेल के दरवाज़ा आ गई घर में !
कभी हवा की तरह तुम भी आया जाया करो !!
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आँखो और कानों में कुछ सन्नाटे से भर जाते हैं
क्या तुम ने उड़ती देखी है, रेत कभी तन्हाई की
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किस में रखी है सुबह की धड़कन
गुन्चा गुन्चा टटोलती है रात
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गुलों को सुनना ज़रा तुम सदायें भेजी है
गुलों के हाथ बहुत सी दुआयें भेजी है
जो आफ़ताब कभी भी गुरुब होता नहीं
वो दिल है मेरा उसी की शु’आयें भेजी है
तुम्हारी ख़ुश्क सी आँखें भली नहीं लगती
वह सारी यादें जो तुमको रुलायें भेजी है
स्याह रंग , चमकती हुई किनारी है
पहन लो अच्छी लगेंगी घटायें भेजी है
तुम्हारे ख़्वाब से हर शब लिपट के सोते है
सज़ायें भेज दो हम ने खतायें भेजी है
अकेला पत्ता हवा में बहुत बुलंद उड़ा
ज़मी से पाँव उठाओ, हवायें भेजी है
-गुलज़ार [ रात पश्मिने की]
Gulzar’s words are always refreshing !
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