रातके माथे पर जो बल पडे है,
चाँदके सफ़रका बयाँ है।
उजालोंके सूरज तो निकले है कबसे,
ये कौनसा चिलमन दर्मियाँ है।

– – – – – – —- – – –

आओ एक आरजूकी तिली जलाओ,
कि रात आज काफी जगी हुई है।
कहेदो हवाओ से चूपचाप गुजरे,
कि निंदकी चिठ्ठी कहीं उड ग्ई है।

. . . . . .
तारे आँखों में चूभ रहे है,
चाद की लौ को जरा बूझा दो।
बादलोकी ऒढनी आज डालूँ सर पे,
कि रात आज काफ़ी जली जली सी है।

– – – – – – – —-
ओसकी सारी बूँदे पी गया,
रातका दिया बडी प्यासमे जागा।

. . . . . . . . ….
नींदके एक एक पत्ते उड गये,
रातभी क्या तूफानी सी थी।
सपनोंकी आग कहाँ जल पाई,
तेरे तसव्वुरके सारे तिनके उड गये।
—–नेहल

2 thoughts on “रात – नेहल

Comments are closed.